raja ben ki katha / राजा बेन की कथा
(श्रीमद्भागवत महापुराण /चतुर्थ स्कंध /चौदहवाँ अध्याय)
राजा वेणु और उनके पुत्र अङ्ग की कथा
मैत्रेयजी ने कहा-संसार का कल्याण चाहने वाले उन ब्रह्मवादी भृग्वादि मुनियों ने राजा के न रहने पर बेन को पृथ्वी का राजा बनाया।
तब अत्यन्त कठिन शासन करने वाले बेन को राजा हुआ सुनकर सारे चोर जैसे सर्प के भय से मूषक छिप जाते हैं वैसे ही छिप गये।
बेन राजसिंहासन को पाकर आठों लोकपालों के ऐश्वर्य से उच्छृङ्खल हो अपने मुख अपनी प्रशंसा करता हुआ पूज्यों का अनादर करने लगा और अंकुश से रहित मतवाले हाथी की तरह अभिमानी वह रथ में बैठकर पृथ्वी तथा आकाश को कंपित करता हुआ घूमने लगा और कहने लगा-हे ब्राह्मणों! आप लोग न कहीं यज्ञ करें, न दान दें, न हवन करें।
इस प्रकार भेरी शब्द के साथ चारों तरफ धर्म करने से रोक दिया। तब मुनि लोग दुष्ट बेन के इस अत्याचार को देख एकत्र होकर संसार के दुःख का विचार करते हुए कृपापूर्वक यह कहने लगे कि इस समय संसार को राजा तथा चोर दोनों और से जैसे दोनों ओर से जलती हुई लकड़ी के बीच में स्थित चींटी को कष्ट हो, वैसे ही बड़ा संकट प्राप्त हुआ है।
raja ben ki katha / राजा बेन की कथा
अराजकता के भय से अयोग्य रहने पर भी इसे राजा बनाया, परन्तु आज इससे भी भय उत्पन्न हुआ। अब मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा?
जैसे दूध पिलाकर सर्प का पालन करना, पालन करने वाले को भी अनर्थदायक होता है, वैसे ही सुनीथा का पुत्र बेन स्वभाव से ही दुष्ट है और आज वह अनर्थदायक हो रहा है।
क्योंकि प्रजा पालन में, हम्हीं लोगों से प्रजापालक नियुक्त किया गया, वह प्रजाओं का संहार कर रहा है। फिर भी हम लोग इसे शान्त करना चाहते हैं, जिससे हम लोगों को इसका पाप तो न लगे।
राजा बेन दुराचारी है, ऐसा जानते हुए भी हम लोगों ने इसे राजा बनाया। परन्तु अब यदि यह अधर्मी समझाने पर भी हम लोगों के वचन को नहीं ग्रहण करता है तो मनुष्यों के तिरस्कार से दग्धप्राय उसे अपने तेज से नष्ट कर डालेंगे।
इस प्रकार निश्चय कर मुनि लोग अपने क्रोध को छिपाकर बेन के पास जाकर, शान्तिपूर्वक वचनों से समझाकर उससे कहने लगे-हे राजन्! हम लोग तुम्हारी आयु, लक्ष्मी, बल तथा कीर्ति को बढ़ाने वाले जिन वचनों को कहते हैं, उन्हें तुम सुनो।
raja ben ki katha / राजा बेन की कथा
मन, वाणी, शरीर तथा बुद्धि से किया हुआ धर्म मनुष्यों को शोक से रहित ब्रह्मादि लोकों को देता है तथा जो मनुष्य निष्काम होकर धर्म करते हैं उन्हें मोक्ष भी प्रदान कर देता है। इसलिए हे वीर! मनुष्यों का कल्याणरूप यह तुम्हारा धर्म नष्ट न हो जिसके नष्ट होने पर राजा अपने ऐश्वर्य से गिर जाता है।
हे राजन्! असत् मंत्री तथा चोरों से प्रजा की रक्षा करताएवं समय पर शास्त्रानुसार कर लेता हुआ राजा इस लोक में सुख प्राप्त करता है और मरने के पश्चात् स्वर्ग में भी प्रसन्नता पूर्वक रहता है।
जिस राजा के राष्ट्र तथा नगर में वर्ण और आश्रम के धर्मों से युक्त मनुष्य अपने-अपने धर्म से युक्त यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु का भजन करते हैं।
हे महाभाग! अपने धर्मयुक्त शासन में स्थित रहने वाले उसराजा के ऊपर प्राणियों को उत्पन्न करने वाले विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं।
जगदीश्वर ब्रह्मा और उनके भी ईश्वर उन भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर मनुष्य को कौन-सी वस्तु दुर्लभ है? जिन भगवान्को लोकपालों सहित सम्पूर्ण लोक बड़े आदर के साथ बलि समर्पित करते हैं, उनकी आज्ञा पालन करते हैं।
अतः हे राजन्! आप अपने कल्याण के लिए सम्पूर्ण लोकों को उनके पालक देवताओं तथा यज्ञों का नियन्त्रण करने वाले वेदत्रयी रूप द्रव्यमय तथा तपोमय उस भगवान् का नाना प्रकार के यज्ञों से भजन करने वाले अपने देश के निवासी मनुष्यों का अनुसरण करने योग्य हैं।
raja ben ki katha / राजा बेन की कथा
हे वीर! तुम्हारे देश में ब्राह्मणों के द्वारा किये गये यज्ञ से पूजित भगवान् के अंश से होने वाले देवता प्रसन्न होकर तुम्हारे मनोरथ को सिद्ध करेंगे।
इससे तुम्हें उनका तिरस्कार करना उचित नहीं है। इस पर बेन ने कहा- अधर्म में धर्म मानने वाले तुम लोग बड़े मूर्ख हो, जो वृत्ति देने वाले मेरे जैसे ईश्वर को छोड़कर दूसरे पति की सेवा करते हो।
जो मनुष्य राजारूपी ईश्वर का अनादर करते हैं वे इस लोक में तथा स्वर्गलोक में कल्याण प्राप्त नहीं करते।
जैसे पति के प्रेम से रहित कुलटा स्त्रियों की अन्य पति में भक्ति होती है वैसी ही आप लोगों को जिसमें भक्ति है वह यज्ञपुरुष नाम वाला कौन है? विष्णु, ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि, वरुण- ये तथा वरदान और शाप देने में समर्थ और भी जो देवता हैं-वे सभी एक राजा के शरीर में रहते हैं।
इसलिए राजा सम्पूर्ण देवतामय रहता है। अतः हे ब्राह्मणों! आप लोग ईर्ष्या छोड़कर अपने-अपने धर्मों से हमारा भजन करें और हमें ही बलि समर्पित करें।
क्योंकि मुझसे अन्य दूसरा कौन पुरुष आराध्य है? मैत्रेयजी ने कहा- इस प्रकार विपरीत बुद्धि, कुमार्गगामी, अत्यन्त पापी उसने समझाने पर भी उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
क्योंकि उसका पुण्य नष्ट हो चुका था। तब अपने को पण्डित मानने वाले बेन से अ पमानित हुए उन ब्राह्मणों ने अपनी श्रेष्ठ प्रार्थना के भग्न हो जाने पर सब उसके ऊपर क्रोध करते हुए बोले-स्वभाव से ही कठोर इस पापी को मार डालो, मार डालो।
यदि यह जीवित रहा तो सारा संसार नष्ट कर डालेगा। निर्लज्ज, दुराचारी यह यज्ञ-प्रवर्तक तथा रक्षक भगवान् विष्णु की निन्दा करता है। अतः यह श्रेष्ठराज सिंहासन के योग्य नहीं है।
raja ben ki katha / राजा बेन की कथा
जिन भगवान् की कृपा से ऐसे राज्यरूप ऐश्वर्य को इसने प्राप्त किया है, उन भगवान् की इस पापी बेन को छोड़ और दूसरा कौन निन्दा करेगा? इस प्रकार उसे मारने का निश्चय कर ऋषिगण अपने छिपे हुए क्रोध को प्रकट करते हुए पहले ही भगवान् की निन्दा करने से यज्ञप्राय इस बेन को अपने ही हुङ्कारों से मार डाला।
तदनन्तर मुनियों के अपने-अपने आश्रम में चले जाने पर उसका शोक करने वाली सुनीथा ने अपने पुत्र के उस शरीर को विद्या योग से रक्षा की।
एक समय वे मुनिगण सरस्वती नदी के जल में स्नान कर तथा अग्नि में हवन करके उसी नदी के तट पर बैठे हुए भगवान् विष्णु की कथा कहने लगे।
इस समय मनुष्यों को भय देने वाले बड़े-बड़े उत्पातों को देखकर कहने लगे- कहीं इस अनाथ पृथ्वी का चारों से अकल्याण तो न होगा।
इस प्रकार ऋषिगण विचार कर ही रहे थे कि मनुष्यों का धन लूटकर इधर-उधर भागते हुए चोरों के कारण जो चारों ओर से धूलि उड़ने लगी तो उस समय राजा के अभाव में मनुष्यों का धन चुराने वाले तथा परस्पर एक दूसरे को मारने की इच्छा करने वाले उन मनुष्यों के उपद्रव को जानकर एवं चोर प्रायः राज्य और शक्ति रहित देश को देखकर उन्हें रोकने की सामर्थ्य रहने पर भी रोक देने में दोष देखकर ऋषियों ने उन्हें नहीं रोका।
तब शान्त तथा सम्पूर्ण प्राणियों को एक दृष्टि से देखने वाला ब्राह्मण भी यदि दीन मनुष्यों की उपेक्षा करता है तो जैसे फूटे हुये पात्र से जल चू जाता है, वैसे ही उसकी तपस्या चू जाती है। इस कारण ऋषियों ने विचार किया कि राजर्षि अङ्ग का यह वंश नष्ट होने योग्य नहीं है।
क्योंकि इस वंश में भगवान् का सहारा लेने वाला अत्यन्त पराक्रमी राजा होगा। ऐसा निश्चय कर ऋषियों ने मरे हुये राजा बेन की जंघा बड़े वेग के साथ मन्थन किया और तब उस जंघा से एक छोटा-सा मनुष्य प्रकट हुआ। वह काग के समान काले रंग का था। उसके हाथ-पाँव आदि और सब अंग छोटे- छोटे थे। ठोढ़ी लम्बी थी तथा नासिका का अग्रभाग नीचे को दबा हुआ था।
उसके नेत्र रक्त के सदृश लाल थे और केश ताँबे के समान थे। इस प्रकार उत्पन्न होकर वह ऋषियों के समक्ष अत्यन्त दीन हो शिर झुकाकर कहने लगा-मैं क्या करूँ? ऋषियों ने कहा-बैठ जाओ।
इससे हे तात! वह निषाद नाम से प्रसिद्ध हुआ और उनका वंश पर्वतों का आश्रय कर रहने वाला हुआ। क्योंकि उसके उत्पन्न होने से बेन का जो अत्यन्त भयानक पाप था, वह उसने जन्म लेते ही नष्ट कर दिया।
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