काशी नगरी का इतिहास
सप्त पुरियों में से एक प्रशिद्ध काशी पूरी की कहानी
विश्वेशर का एक नाम विश्वनाथ भी है। यह ज्योतिर्लिंग काशी शहर के मध्य में स्थित है और काशी विश्वनाथ नाम से प्रख्यात है।
काशी का आधुनिक नाम वाराणसी पड़ गया। गंगा वरुणा जैसी पावन नदियों के बीच में यह काशी नगरी बसी हुई है , यह काशी नगरी भारत ही नहीं अपितु समस्त संसार की प्राचीनतम नगरी उनमें से एक है।
बीच के काल में इसे बनारस के नाम से पुकारा जाने लगा,गंगा के किनारे बने यहां के घाट सर्वत्र विख्यात है। 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक विश्वनाथ के होने से ही नहीं है काशी का महत्व।
बल्कि वाराणसी की गिनती सप्तपुरियो. व् तीर्थ स्थलों में भी की जाती है। कहा जाता है कि प्रलय काल में भी काशी नगरी का नाश नहीं होता है।
काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त ऋषि ऋषि ने श्री स्कंध से पूछा था- जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कंध ने उन्हें बताया कि यही प्रश्न एक बार हमारी माता पार्वती ने पिता शिव जी से पूछा था।
तब उन्होंने कहा था प्रलय के समय जगत के संपूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे , सर्वत्र घोर अंधकार छाया हुआ था उस समय सत स्वरूप ब्रह्मा के अतिरिक्त सूर्य ग्रह नक्षत्र तारे आदि कुछ भी नहीं थे।
केवल एक ब्रह्मा का ही अस्तित्व था जिसे शास्त्रों में एकमेवदुतीयम कहा गया है।
ब्रह्मा का ना तो कोई नाम है ना कोई रूप इसलिए वह मनवाणी आदि इंद्रियों का विषय नहीं बनता है , वह तो सत्य है, ज्ञानमय है और आनंद स्वरूप है वह निर्विकार निराकार निर्गुण तथा सर्वव्यापी माया से परे परमात्मा प्रलय के अंत में अकेला ही था।
फिर उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि मैं एक से दो हो जाऊं यद्यपि वह निराकार है किंतु लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया।
परमेश्वर के संकल्प से प्रगट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से युक्त, सर्वज्ञानमय , सत्य स्वरूप सत्यमूर्ति सबके लिए वंदनीय थी।
काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्तेश्वर लिंग की स्थापना की थी। इसलिए उन्होंने अपने अंश भू हर शिव को यह यह निर्देश दिया कि तुम्हें कभी भी अपने क्षेत्र का त्याग नहीं करना है।
यद्यपि ऐसी कथा है कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा हो जाने पर इस जगत का प्रलय हो जाता है। फिर भी अविमुक्तेश्वर- काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है।
क्योंकि इसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। ब्रह्मा जी जब नवीन सृष्टि प्रारंभ करते हैं तो उस समय शिव काशी नगरी को पुनः भूतल पर स्थापित कर देते हैं।
कर्मों का आकर्षण नष्ट करने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम काशी पड़ा है। जहां अविमुक्तेश्वर लिंग हमेशा विराजमान रहता है।
संसार में जिसको कहीं भी गति नहीं मिलती है उसको वाराणसी में गति मिल जाती है। महा पुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं को नाश करने वाली है।
काशी संसार की सबसे प्राचीन नगरी मानी जाती है- ऋग्वेद की तृतीय और सप्तम मंडल में इसका उल्लेख मिलता है। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई थी। किंतु वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है।
आजकल यहां तीन विश्वनाथ मंदिर है- एक ज्ञानवापी में है जिसका निर्माण रानी अहिल्याबाई ने किया था। सिख महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण कलस चढ़ावाया था।
काशी की एक सकरी गली में प्रवेश करने पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के दर्शन होते हैं कहा जाता है कि इस मंदिर की पुनर्स्थापना शंकर के अवतार आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने कर कमलों से की थी।
इस मंदिर की ध्वजा सोने की बनी हुई है और यह मंदिर बड़ा भव्य और सुंदर है। मंदिर परिसर में सौभाग्य गौरी श्रृंगार गौरी गणेश जी अविमुक्तेश्वर महादेव व सत्यनारायण के मंदिर अवस्थित है।
मुख्य मंदिर एक संकरी गली में अवस्थित है और इसके आसपास अनेक गलियां है जिसमें विभिन्न देवी देवताओं के मंदिर हैं अन्नपूर्णा माता का भव्य मंदिर पास में ही स्थित है, शनि महाराज का भी मंदिर गली में है ,अन्नपूर्णा की पश्चिम गली में तुण्डि राज गणेश मंदिर है।
काशी के घाट हजारों साल से काशी की महिमा का गुणगान संसार में करते हैं।
गंगा यहां पर आकर इस प्रकार उत्तरवाहिनी हुई है की काशी के घाटों को अर्धचंद्र का रूप धारण करना पड़ा है। इस समय यहां के घाटों की संख्या लगभग 80 है।
पक्के घाटों का निर्माण लगभग आज से 400 वर्ष पूर्व बताया जाता है। ऐतिहासिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि आज के वर्तमान घाट भारत के पूर्व राजाओं की देन है। इन घाटों का अधिकार श्रेय यहां के राजा श्री बलवंत सिंह जी को जाता है।
जिन्होंने भारत के विभिन्न देशी राजाओं को गंगा तट पर घाट बनवाने के लिए आमंत्रित किया। किंतु कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों से यह बात का भी निष्कर्ष निकलता है की कुछ घाटों का निर्माण मराठों के काल में हुआ था।
कुछ प्रसिद्ध घाटों का विवरण कुछ इस प्रकार है- पहला है अस्सी घाट यह घाट पहले कच्चा अभी यह घाटा पक्का हो चुका है इस घाट के ऊपर जगन्नाथ जी का मंदिर है। इसी घाट से लोग पंचक्रोशी की यात्रा प्रारंभ करते हैं।
दूसरा है तुलसी घाट इस घाट के ऊपर तुलसीदास जी का मंदिर है यहां पर उनकी खड़ाउ अभी तक सुरक्षित हैं। काशी स्थित संकट मोचन मंदिर का निर्माण भी गोस्वामी गोस्वामी तुलसीदास जी ने ही कराया था.
तीसरा है शिवाला घाट यह घाट महाराजा बलवंत सिंह के कोषा अध्यक्ष पंडित वैद्यनाथ मिश्र ने बनवाया था। यह घाट अभी भी अच्छी दशा में है। इस घाट पर बारादरी महल और मंदिर भी है इस घाट का ऐतिहासिक महत्व है। इसी घाट पर ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के साथ महाराज चेत सिंह का युद्ध हुआ था और वह खिड़की के रास्ते गंगा में कूदकर लापता हो गए थे।
चौथा है हनुमान घाट यह पक्का है , घाट के ऊपर हनुमान जी का मंदिर है यहीं पर नागाओ का जूना अखाड़ा है।
यहां दक्षिण भारतीयों की बस्ती भी है।
पांचवा है हरिशचंद्र घाट यह काशी के प्रमुख घाटों में से एक है। इस घाट पर विद्युत सवदाह घाट भी है, इसे श्मशान घाट के नाम से भी लोग जानते हैं।
छठवां है दशास्व मेघ घाट यह घाट वाराणसी की चौपाटी भी है यह सबसे प्रसिद्ध और पावन घाट माना जाता है यह एक चौड़ी सड़क से शहर से मिला हुआ है। काशी के पंच तीर्थों में इसका भी एक स्थान है।
सातवां है अहिल्याबाई घाट इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने ही यह घाट बनवाया था इस घाट पर इंदौर राजघराने का महल भी है।
आठवां है मणिकर्णिका घाट इस घाट को इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने बनवाया था कहा जाता है कि यह घाट पूरी तरह से बन नहीं पाया था और बीच में ही महारानी का देहांत हो गया था अतः घाट का एक हिस्सा अधूरा रह गया था जो अभी तक उसी तरह पड़ा है। इस घाट के ऊपर मणिकर्णिका कुंड भी है।
नवा है मुंशी घाट यह घाट नागपुर के दीवान मुंशी श्रीधर द्वारा बनवाया गया था काशी के घाटों में यह घाट दर्शनीय है।
इसमें पत्थर की कारीगरी बहुत आकर्षणीय है।
दसवां है मान मंदिर घाट यह घाट जयपुर की राजा मानसिंह ने बनवाया था घाट के ऊपर महल भी है इस महल का एक कमरा अपनी कला कलात्मक बनावट के लिए प्रसिद्ध है।
भारतीय संस्कृत की निर्माण स्थली होने के कारण यहां पर मेलों और उत्सवों की संख्या बहुत अधिक है सूर्य और चंद्र ग्रहण के अवसर पर बहुत भारी संख्या में लोग इस तीर्थ पर आते हैं गंगा में स्नान करते हैं और मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। यहां की रामलीला का विशेष महत्व है।
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