पुरंजन की कथा puranjan ki katha

 पुरंजन की कथा puranjan ki katha

पुरंजन की कथा puranjan ki katha


एक पुरंजन नाम का राजा था, जिसके एक परम प्रिय मित्र था।
उसका नाम तो मुझे नहीं स्मरण आ रहा है। किन्तु वह पुरंजन बड़ा ही विषयी और भोगानन्दी था। 


वह देशाटन कर विषयों का आनन्द लिया करता, यही उसके जीवन का ध्येय था, एक बार चलते-चलते वह हिमालय की तराई में पहुँचा, वहाँ उसके मन के योग्य कोई स्थान न मिला।


 तब वह पर्वत पर चढ़ गया और वहाँ उसे नौ शिखरों से शोभित एक नगर दिखाई पड़ा। उस नगर में एक बड़ा ही विशाल एवं कामोद्दीपक वैभवशाली भवन बना हुआ था, जिसकी मणिमण्डित रचना को मैं कहाँ तक कहूँ, वहाँ की रमणीयता भोगियों के मन को सर्वथा ही आकृष्ट करने वाली थी। 


वहाँ पहुँचकर पुरंजन ने देखा तो वाटिका में एक सुन्दर स्त्री टहल रही है, जिसके साथ में उसके दश टहलुवे, एक पाँच सिर वाला सर्प द्वारपाल है और जो अपनी युवावस्था के मद में चूर्ण थी और यह चाहती थी कि मुझे कोई श्रेष्ठ पति मिले और सम्भवतः वह इसी खोज में वहाँ आई भी थी। 


उसकी सुन्दरता अपूर्व थी और उसके दोनों कानों में सुवर्ण के कुण्डल झलक रहे थे। वह अपनी कटि में हजार बन्द लगाये, श्यामरूप से सुवर्ण की करधनी पहने हुए वहाँ टहल रही थी, जिसके पाँवों में नूपुर बज रहे थे और इस प्रकार वह अप्सरा-सी जान पड़ती। 

पुरंजन की कथा puranjan ki katha

उसके नूतन नवयौवना के-से प्रकट हो रहे थे और वह समान आकृति वाले खूब मांसीले दोनों कुचों को, जो परस्पर सटे हुए थे लज्जापूर्ण अंचल से उन्हें ढंके हुए थी,तथा जो मस्त हथिनी के समान झूम-झूमकर चल रही थी।


 इतने ही में पुरञ्जन उसके सामने जा पहुँचा। युवती ने पुरञ्जन को अपने स्नेह भरे कटाक्ष से बेध दिया साथ ही लज्जापूर्ण ऐसे ढंग से मुसका दिया कि जिससे और भी जादू चल गया, उसकी और भी शोभा बढ़ गई। 


तब उसके इस अपूर्व सौन्दर्य और कटाक्ष को देख पुरंजन ने उसे कहा- हे कमलाक्षी! हे विदुषी! तुम कौन हो, किसकी स्त्री हो और यहाँ किस लिए आई हो? 


हे भीरु! इस नगर के समीप तुम क्या करना चाहती हो, यह मुझसे कहो? ये तुम्हारे साथ ग्यारह सेवक कौन हैं, जो बड़े ही विलक्षण दीख पड़ते हैं। ये स्त्रियाँ कौन हैं और यह सर्प तुम्हारा कौन है? 


क्या तुम अपने पति को ढूँढ़ती हुई धर्म की पत्नी हो या भवानी हो या सरस्वती अथवा लक्ष्मी हो? तुम एकान्त में क्यों विचरने आई हो। तुम तो मुझे लक्ष्मी के समान जान पड़ती हो, परन्तु यह तो कहो कि तुम्हारा कमल कहाँ गिर गया है? हे उत्तम जंघों वाली! मैं विचार कर देखता हूँ तो तुम मुझे कुछ और ही जान पड़ती हो। 


अतः कहो कि क्या तुम मुझे अपना पति बना सकती हो? 

मेरे पास बहुत से गुण हैं। जिससे तुम मेरे साथ रहकर खूब सुख भोगोगी। हे भीरु!

तुम्हारे कटाक्ष ने मुझे बहुत व्याकुल कर दिया है और अब कामदेव मुझे बड़ी पीड़ा दे रहा है, इस कारण तुम मुझ पर कृपा करो। 

नारदजी कहते हैं कि जब पुरंजन ने उस सुन्दरी से ऐसे कहा, तो उसने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और दोनों स्त्री-पुरुष उस सुन्दर पुरी में प्रवेश कर गये। हजारों वर्ष तक उन्होंने उसमें आनन्द लिया। प्रत्येक ऋतुओं में आनन्ददायक उन्होंने काम-क्रीड़ा की। समय-समय पर गायक लोग उनके मन का सुन्दर गान करते रहे। हे राजन्! यह कथा बुद्धि और जीव से सम्बन्धित है। दश सेवक दश इन्द्रियाँ हैं। 


हिमालय की वह पुरी शरीर है। समय-समय पर जो कहा है वह जाग्रत् अवस्था है। नगरी के सात द्वार- दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक मुख थे।


दो द्वार (लिंग और गुदा) और थे। ऊपर के सात द्वारों में पाँच पूर्व दिशा में थे। एक द्वार उत्तर की ओर था और एक दक्षिण की ओर (बायाँ और दाहिना कान)। 

पुरंजन की कथा puranjan ki katha

इन सबके नलिनी, नालिनी, अवधूत,सौरभ, आपण, बहुरन, विषण और रसल आदि और बहुत से नाम हैं जिनके द्वारा यह जीव नाना प्रकार के विषय सुखों को भोगता है। इसी
प्रकार से उस रानी के साथ (बुद्धि के साथ) पुरंजन (जीव) कितने ही दिनों तक विषयानन्द लेता रहा जिसमें वह कभी हर्ष, को प्राप्त होता है और कभी दुःख से रोने लगता। रानी जो-जो कर्म करती, वह कर्म पुरंजन भी किया करता। 


जब वह बोलती, तब वह बोलता। जब वह हँसती, तब वह भी हँसता, जब वह मद्य पीती, तब वह भी मद्य पीता, जब वह भोजन करती, तब वह भी भोजन करता। सोना, गाना, उठना, बैठना उसके सब कार्य के अनुकूल हुआ करते थे। 


इस प्रकार वह अज्ञानी होकर परवश हो गया और न चाहने पर भी उसको अपने सब कार्य रानी के ही अनुकूल करने पड़ते थे।पुरंजन की मृगया और पुरंजनी का मनुहारनारदजी कहते हैं- हे राजन् ! इस प्रकार वह दोनों (पुरंजन औरपुरंजनी) विषयानन्द लेते रहे। 


एक समय जब वह पुरंजन, जो बड़ा धनुर्द्धर भी था, वन में आखेट करने गया, तो वहाँ मृगया में ऐसा तन्मय हो गया कि, उसे अपनी स्त्री पुरंजनी का कुछ भी ध्यान न रहा और वह मानो उसे भूला हुआ-सा कुछ दिन तक उधर ही पड़ा रहा। 


मृगया में क्रूर कर्म तो वह कर ही रहा था कि उसके प्रभाव से उसे अपनी स्त्री का ध्यान न रहा। वह सोचता कि मृगया तो राजाओं का धर्म ही है। किन्तु उसे यह नहीं ज्ञात था कि क्रूरकर्म शास्त्र विरुद्ध है। राजनीति में दण्ड का विधान अवश्य है, पर उसका दृष्टिकोण ही कुछ दूसरा है। 


पुरंजन मृगया में लीन रहा। 

इधर उसके वियोग में पुरंजनी ने अपने हास-विलास सब कुछ त्याग दिए और सर्वथा ही खिन्न रहने लगी। कुछ समय व्यतीत कर जब विलम्ब से पुरंजन घर लौटा तो स्त्री की खिन्न दशा देखते ही, कर्म कीविवशता से वह भी वैसा ही खिन्न और दुःखी हो गया। 


पश्चात् उसने उसे बहुत अनुनय-विनय कर शृङ्गार करने के लिए उठाया और कहा-प्रिये! तुम्हारा जिसने अपराध किया हो, बतलाओ मैं उसे दण्ड दूंगा। तुम मेरेअपराध को क्षमा करो। यह मेरी अवश्य ही भूल है कि जो मैं तुमसे बिना

पूछे ही मृगया के दुर्व्यसन में जाकर फँस गया। हे प्रिये! तुम जानती हो कि स्त्री का यही धर्म है कि जब पति काम के वश हो तब उसे प्रसन्न करे। अतः तुम उठो और शीघ्र ही शृङ्गार कर मुझे आनन्द दो।

आगे की कथा दूसरे भाग में पड़ें-

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