raja puranjan ki katha राजा पुंरजन की कथा

raja puranjan ki katha 

राजा पुंरजन की कथा

(भाग-2)

raja puranjan ki katha   राजा पुंरजन की कथा  (भाग-2)

(सत्ताईसवाँ अध्याय)
कालकन्या की कथा-
मैत्रेयजी कहते हैं-हे विदुर! अब पुरंजनी उठी और अच्छी तरह
रचकर शृङ्गार किया तथा पुरंजन से प्रेमालाप कर उसे प्रसन्न किया।

इस प्रकार वह नित्य ही शृङ्गारित रह पुरंजन के साथ आनन्द से रहती। पुरंजन उसमें ऐसा अनुरक्त रहता कि उसे इसके सौन्दर्य तथा अपनी कामुकता का बड़ा अभिमान भी होता रहता। मन बढ़कर कहीं का कहीं चला जाता। 

जब वह पुरंजनी को अपने बाहुमूल में लेकर शय्या पर पड़ता तो अपने को बड़ा धन्य समझता और इस प्रकार उसे पाकर समझता रहता कि मैने बड़ा पुरुषार्थ किया है। 

यह स्त्री क्या है, स्त्रियों में रत्न है, इत्यादि। 

वह इसी प्रकार की अज्ञानपूर्ण बातों में पड़ा रहता और दिन-रात भोगों में फंसा रह जीवन को समाप्त करता रहा। उसने अपनी समस्त युवावस्था को स्त्री-रमण में ही समाप्त किया। 

दीर्घकाल क्षणभर के समान व्यतीत हो गया। वहाँ उसके पुत्र और कन्याएँ हुईं जिनका उसने विवाह भी किया और गुणवान् बहुयें तथा कन्याओं को उनके योग्य पति भी मिले। फिर, उन सबके भी एक-एक पुत्र और एक-एक पुत्रों के सौ-सौ पुत्र हुए जिससे चाल देश बसा। 

फिर तो कहना ही क्या था, पुरंजन पुत्र-पौत्र, गृह, कोष, सेवक और देश आदि की अत्यन्त ही दृढ़ ममता में ऐसा अनुरक्त हुआ कि उसकी बुढ़ापा भी आ गई। तब उसने यज्ञ करके अपने जीवन का उद्धार करना चाहा। 

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राजा पुंरजन की कथा

परन्तु यज्ञों से तो लौकिक मनोकामनायें ही पूर्ण होती हैं
और वैसे ही स्वर्गादि के सुख भी मिलते हैं, परन्तु उनसे आत्मकल्याण तो होता नहीं। 

आत्मकल्याण तो ज्ञान से होता है। यज्ञादि में तो अहंकार का लेश रहता है और यह अहंकार ही मनुष्य के बन्धन का कारण होता है। हे राजेन्द्र बर्हिष! इसी प्रकार पुरंजन यज्ञादि द्वारा मोक्ष लेना चाहता था और बहुत कुछ सोचता-विचारता रहा। 

परन्तु वह था तो क्रूरकर्मी, सदैव का मृगया-प्रेमी और कामी। उसे शुभ कर्म और आत्मकल्याण की बात कहाँ सूझती। वह फिर आखेट करने के लिए वन में गया और बहुत-सा क्रूर कर्म कर घर लौटा। 

परन्तु जब इस बार घर में उसका स्वागत करने के लिए कोई न मिला। फिर भी उसने स्नानादि कर भोजन किया और जब विश्राम करने गया तो उसे काम ने सताया और स्त्री का स्मरण हुआ। उसने सारा घर देखा, परन्तु स्त्री वहाँ न थी। 

सर्वत्र उदासीनता छाई थी। वह मोह से कातर हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर चेतना प्राप्त कर उठा तो नाना प्रकार के संकल्प विकल्प कर विलाप, शोक, चिन्ता और बहुत-सी ज्ञान की बातें कहने लगा। 

सेवकों को बुलाकर उनसे बहुत पूछने-समझने और उनसे प्रलोभन की बात कहकर उसी प्राण-प्रिया स्त्री को पूछने लगा।

 उधर उसने यद्यपि सेवकों को मना कर दिया था कि राजा चाहे जो कुछ कहें मेरा पता न बतलाना, ऐसा कहकर वह एक गुप्त स्थान में जाकर उसके वियोग में पड़ी हुई दीर्घ निःश्वास ले रही थी। 

परन्तु सेवकों को दया आ गई और उन्होंने पता बतला दिया। वृद्ध पुरंजन उसके पास जाकर फिर उसकी चाटुकारी करने, क्षमा माँगने और विविध मनुहार कर शान्ति-लाभ करने का उपक्रम करने लगा। 

परन्तु जब जीवन भर अशान्ति के कर्म किया तो अब शान्ति कहाँ मिलती। उसकी बुढ़ौती समझ उसी समय चण्डवेग नामक गन्धर्वो के राजा ने उसके नगर पर आक्रमण कर दिया। 

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राजा पुंरजन की कथा

उसके युद्ध-दुर्मद वीर पुरंजन की पुरी का नाश करने लगे। पुरंजन के द्वार-रक्षक बड़े बली थे इससे सैकड़ों वर्ष तक वे गन्धर्वो से युद्ध करते रहे, जिनकी वीरता देख पुरंजन जो महल में पुरंजनी के साथ विषयानन्द में लिप्त था, बड़ा प्रसन्न होता।

 परन्तु गन्धर्वो ने तो उसके नगर को नष्ट ही कर दिया। साथ ही यवन देश के एक और राजा ने भी पुरंजन पर धावा बोल दिया कि जिसके आक्रमण से अब पुरंजन की किसी प्रकार भी रक्षा न हो सकती थी।

कारण कि 'कालकन्या' उसकी स्त्री थी कि जिसके प्रताप के आगे किसी का वश नहीं चलता था। काम ही जिसका आहार था और निश्चय ही वह काल की कन्या थी। 

वह ऐसी दुर्भाग्यवती थी कि समस्त त्रिलोकी में भी उसे कोई वरण न कर सका और इस दुर्भाग्य के कारण ही उसका नाम दुर्भगा पड़ गया था। बहुत खोज करने और उसके बहुत अनुनय-विनय करने पर राजा 'पुरु' ने ही उसे थोड़े दिन तक अपने पास रखा था और फिर वे भी न रख सके। 

हे राजन्प्राचीन बर्हिष! तब वह मुझे मिली, परन्तु आजन्म ब्रह्मचारी और भगवद्भक्ति का दृढ़व्रती मैं उसे क्यों स्वीकार करता? इससे उसने क्रुद्ध होकर मुझे शाप दे दिया कि तुम कहीं एक स्थान में न ठहर सकोगे।

मैने उसका शाप स्वीकार कर लिया। 

तब उसने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ जाऊँ? तब मैने उसे यवन देश के राजा के पास जाने को बतला दिया।

वह यवनाधिप के पास गई, परन्तु उसने भी उसे अपनी स्त्री बनाने से इन्कार कर दिया। जिस पर उसने यवनाधिप को अपना बड़ा प्रताप कहकर बहुत पिघलाया। 

इस पर उसने कहा-अच्छा, मेरे भाई प्रज्वर की स्त्री हो जा। उसके नाते मैं तेरा समर्थन बहिन के रूप में करूँगा और फिर मैं तुम दोनों को साथ लेकर सर्वत्र भ्रमण करूँगा और जहाँ भी तुझे कोई सुन्दर पुरुष मिल जाय तू उसके साथ रमण किया कर इसकी मैं तुझे छूट देता हूँ। 

हे राजन् बर्हिष! वही कालकन्या यवनाधिप के साथ पुरंजन के नगर पर अपने वीर सेनानियों सहित आक्रमण करने चली गई।

(अट्ठाईसवाँ अध्याय)

पुरंजन का स्त्री-चिन्ता में मरकर फिर विदर्भ में स्त्री जन्म पाना तथा आत्मज्ञान द्वारा उद्धार होना नारदजी बोले-हे प्राचीन बर्हिष! अब यह कालकन्या प्रज्वर (भय) नामक अपने यवन पति के साथ सब लोकों में भ्रमण करती हुई पुरंजन की पुरी पर पहुंची तो उसे अत्यन्त ही रमणीय देख उसने यवनाधिप कहकर उस नगरी पर आक्रमण करा दिया। 

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राजा पुंरजन की कथा

पुरंजन के द्वारपाल पाँच सिर वाले बुड्डे सर्प ने बड़ी वीरता से उसके वेग को रोका। परन्तु कहाँ की बात, कालकन्या बड़े वेग से पुरंजन के पुर को बलात्कार भोग करने लगी। 

उसके भोग से पुरंजन की नगरी के वीर शक्तिहीन हो गये। पुरंजन तो विषयी होने से पहले ही से शक्तिहीन था। निदान यवनों ने उसके चारों द्वारों से प्रवेश कर समस्त पुरी को बहुत ही पीड़ित कर दिया। 

गन्धर्वो ने पहले ही उसे नष्ट कर दिया था। अब यवनों ने तो सर्वथा ही उसके ऐश्वर्यादि को हरा लिया। साथ ही कालकन्या भी अब आकर उससे ऐसा लिपट गई कि जिससे वह कामी पुरंजन और बड़ा दीन हो गया। 

तब उसकी निर्बलता देख उसकी परमप्रिया स्त्री पुरंजिनी ने भी उससे प्रेम करना छोड़ दिया और पुत्र, पौत्र, सेवक और मन्त्रिगण भी प्रतिकूल हो गये। 

इधर कालकन्या ने तो उसे निस्सार ही कर दिया, जिससे अब वह पुरंजन भोग करने योग्य न रहा। तथापि उसका चित्त तो यही चाहता था कि मैं भोग करूँ। अब भी उसे अपने परलोक की चिन्ता न हुई और वह सबसे तिरस्कृत होकर भी पुत्र, स्त्री इत्यादि का चाव ही किया करता था। 

परन्तु कब तक चलता? यवनों, गन्धर्वो और कालकन्या ने उसे निर्जीव कर दिया। तब उस नगरी को छोड़ना चाहा। परन्तु भागकर निकल जाना भी अशक्य था। 

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राजा पुंरजन की कथा

गन्धर्वो और यवनों ने उसकी नगरी में आग लगा दी और पुरंजन को मार-मारकर उसके अस्थि-पंजर ढीले कर दिये। फिर बाँधकर अपने स्थान को ले चले। 

उसके सेवक नाग इत्यादि अत्यन्त व्याकुल हो शोक करते उसके पीछे चले। यवनों ने नाग को भी पकड़कर बाँध लिया। पुरंजन की पुरी नष्ट होकर मिट्टी में मिल गई।

अब उसका कोई वश नहीं चलता था। तब जिन पशुओं को उसने आखेट में मारा था वे उसकी क्रूरता को स्मरण करते हुए उसे कुठारों से काटने लगे। 

कितने ही समय तक के लिए उसे अन्धकार के गर्त में ढकेल दिया गया, जहाँ वह हजारों वर्ष तक दुःख भोगता रहा। यह
सब स्त्री के प्रसंग में पड़ने का परिणाम है। 

जब वहाँ से छूटा तब विदर्भ देश के राजा की स्त्री के गर्भ से कन्या होकर उत्पन्न हुआ, क्योंकि अन्त में उसे स्त्री का ही ध्यान था। 

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राजा पुंरजन की कथा

फिर विदर्भ नरेश ने स्वयंबर कर उसे पाण्ड्य नरेश मलयध्वज के साथ विवाह कर दिया, जिससे वहाँ उसे एक कन्या और सात पुत्र उत्पन्न हुए जो द्रविण देश के स्वामी हुए।


पश्चात् वह मलयध्वज राजा वृद्ध होने पर वन में तप करने चला गया, जहाँ उसके साथ विदर्भ पुत्री उसकी रानी भी गई और कितने ही दिनों के पश्चात् जब तब करते-करते उसके पति का शरीरपात हुआ, तब वह उसके लिए विचार करने लगी। 

वहाँ उसे एक ब्राह्मण ने मिलकर उसकी और अपनी पूर्व मैत्री का परिचय दिया और यह ज्ञान दिया कि, संसार में कोई किसी का नहीं है, सब अपने-अपने कर्मों का भोग करने के लिए आते और जाते हैं। 

जो जैसी वासनाओं में पलता है वह वैसे ही जन्म का, कर्म का अधिकारी होता है। हम तुम पहले मानसरोवर के हंस थे। इस प्रकार जब उस मानस के हंस ने उस हंस को उपदेश दिया तब उसे ज्ञान हो गया कि वास्तव में मैं कौन हूँ? 

अब उसे अपने भूले हुए स्वरूप का फिर स्मरण हो आया। हे राजा बर्हिष! यह कथा आत्मतत्त्व से सम्बन्ध रखती है। तुम इसे आत्मतत्त्व से विचार कर देखो।

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